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बचपन

वो चकरी वो मांझा, वो लट्टू वो गिल्ली
कदम मुड़ चले फिर से यादों की गल्ली
है कितनी ही यादें तुम्हें क्या सुनाऊं
वो बचपन की बातें तुम्हें क्या बताऊं

वो भोले से लम्हें गुजर जो गए हैं
वो पलकों को गीला सा करके गए हैं
पता ना चला जिंदगी ऐसे जो गुजरी
कटी है पतंग फिर भी घूमे है चकरी

बिना बचपन, जीने में है मजा क्या
नहीं गुल खिले तो फिजा में बचा क्या
हुई शाम फिर भी सहर ढूंढते हैं
जो बचपन है बीता, डगर ढूंढते हैं

कहीं दिख गया नन्हे बच्चों का टोला
हौले से कदमों को ठिठका के थोड़ा
गुजरे हुए कल को हम ढूँढते हैं
वही पाक भोला सा मन ढूँढते हैं…

– सौरभ विन्चुरकर