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मुसाफिर

एक मुसाफिर
फिर चला है, उस गली
जिसे छोड़ आया था वो,एक घड़ी
बदला बदला सा मंजर है वहां
सिमटे सिमटे से घरों के बीच
खड़ा है वो अकेला सा तन्हा
आँखों में अश्कों की नमी लिए
दिल में अपनों की कमी लिए

मुसाफिर तलाश रहा है कुछ वहां
तेज कदमों से आगे की ओर बढ़ चला है
एक संकरी सी गली में रहते
वो सैंकड़ो लोग जिन्हें कभी
चाचा मामा कहा था उसने
अब अनजाने से लग रहे हैं सभी

बाजार की भीड़ में मुसाफिर
खुद ब खुद आगे बढ़ रहा है
ढूंढ रहा है वही अपना
एक छोटा सा, कच्चा सा मकान
जिसमें छोटा सा उसका परिवार
कभी रहा करता था
जिसे कभी छोड़ कर
वो चला गया था
एक बड़े शहर..

-कृति बिल्लौरे