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पहचान

क्या समझेगा कोई मेरे मन में बसा
वो न जाने कौन सा भय है
कभी कभी लगता है कि
सरलता से जीना भी
कितना यातनामय है

जब खोजता हूँ मन के भीतर बसे
उस भय की व्यापकता को
तो पाता हूँ
कहीं सिसकती हुई एक चाह
जिसका दम घुटा जा रहा है

जो देखना चाहती है लोगों के दिलों में छिपा
अपना एक निहायती साफ प्रतिबिम्ब
लेकिन पूर्वाग्रह से ग्रसित नजरें
सच तक नहीं पहुँचती

दृष्टिदोष सा धुंधला है
ये जानकर भी अनजान हूँ
जो अब तक न पहचानी गई
ऐसी ही एक पहचान हूँ।

-विकास पाल