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ग़ज़ल

रूह तक आ कि मुझे इसका सहारा है बहुत,,,..
जिस्म मत छेड़ मुझे जिस्म ने मारा है बहुत..!!

चाँद की किसको तलब है कि यहाँ तारीकी,,..
इस क़दर है कि मुझे एक सितारा है बहुत..!!

मेरी जानिब से सदा और सदा और सदा,,..
उसकी जानिब से फ़क़त एक इशारा है बहुत..!!

मैं हूँ ख़्वाबों की हवा तू है हक़ीक़त का चराग़,,,..
पास हों दोनों तो इसमें भी ख़सारा है बहुत..!!

इसका ग़म छोड़ कहाँ कैसे कटी हिज्र में उम्र,,..
वो घड़ी सोच जिसे साथ गुज़ारा है बहुत..!!

तू मेरा ख़्वाब है सर्दी की किसी रात का ख़्वाब,,..
सर्द है जिसमें बदन, रूह का पारा है बहुत..!!

-निवेश साहू