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हम-तुम

कम से कम अब जिसे मिलेंगे
हरे-भरे होंगे,
ठीक हुआ जो अलग हो गए
हम-तुम इस सावन।

अगर बिछड़ते हम पतझड़ में
कुछ भी न पाते।
स्वप्न टूट सारे सूखे पत्तों
से बिछ जाते।
अपने हिस्से में आते,
ये रूखे-रूखे मन।

ढल जाएंगे नये गांव के
रीति रिवाज़ो में।
जीवन सामंजस्य बिठा लेगा
नव साजों में।
फिर अतीत का विस्मृत हो,
जाएगा एक एक क्षण।

जीवन जहां कहीं भी गुज़रे,
हरदम हँसना है।
हम तुलसी से जहाँ रहें
बस हमें महकना है।
रोप दिए जाएंगे हम-तुम
अनजाने आँगन।

कुशल कौशल सिंह