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सौ ग्राम बादल

मैं सौ ग्राम बादल से मिला
नींद से लटके मेरे बाल
मृत होकर पूछने लगे
क्या तुम मेरे ज़मीन से
निकल गए हो
जिधर मैं उगा रहता हूँ
कीच से भरी आँखें
आखरी बार झपकती है
और कहती है
क्या तुम मुझ पर पानी छींटोगे
कि मैं तुम्हें बादल बनता देख सकूं
इधर नाक में बैठी आखरी गंध
भी निकल पड़ी, और पूछने लगी
तुम अगर निकल ही गए हो
तो मेरी ओर से निकलते
मैं सारी उम्र तुम्हें तलाशती
हवा सूंघती रही
रक्त मेरे यूँ दौड़ते-दौड़ते
रुक से गए हैं
क्या ये वही मंज़िल है
जिसके लिए
ये सारी उम्र दौड़ते थे
गिरा ये मेरी, नहीं टकराती
अब तालु से
कि ये आवाज़ लगाकर
सौ ग्राम बादल तुमसे
ये पूछें कि तुम कैसे हो
कितने हो, कहाँ से हो
कब तक हो, या फिर निकल ही गए हो
जिधर रहकर भी मैं तुमसे
कभी बात नही कर पाया
नींद मेरी तुम्हें
हर रात तलाशती थी
पर नींद हमेशा तुमसे
थोड़ी दूर सोती थी
शायद इस बार भी चूक हो गई
जो हर रात मैं सौ ग्राम तुमसे
ये कहना चाहता था
कि तुम मेरे साथ चलो
पर अब अगर तुम
निकल ही गए हो..
तो शुक्रिया
इस आखरी नींद का शुक्रिया
ज़िन्दगी को कोसते-कोसते
कोसों दूर, मैं ये भूल गया
कि किधर छूट गए हो तुम
बताओ ये कैसी विडंबना है
कि मरते वक्त भी मुझे,
तुम्हें ढूंढने का मन करता है
बल्कि मैं तो तुम्हें
जी सकता था
तुम्हारे साथ चल सकता था
तुम्हें सुन सकता था
महसूस तो कर ही सकता था
पर इतना भारी होकर भी मैं
सिर्फ सौ ग्राम नही संभाल पाया
तुमने जो चाहा वो मैं कर नहीं पाया
वो सौ ग्राम बादल
तुमसे लिपट नहीं पाया।

– नवीन गुप्ता