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सीरत

सोहबत व सीरत अच्छी, फितरत बेईमान क्यों हैं
चेहरा तो है पहचाना, फिर नज़र अनजान क्यों हैं

मुक़र्रर है हश्र-ए-ज़मी, हर किसी को तो फिर
कहते आदम को, यहाँ मेहमान क्यों हैं

गुनहगार ज़ाहिल हैं, इसमे दो राय नहीं
मसला है, सियासत इन पर मेहरबान क्यों हैं

होती है ज़िरह तो, नजर आता है ईमान भी
फिर चंद टुकड़ों में बिकते, ये हुक्मरान क्यों हैं

निखरेगा फ़न, तो मिल ही जाएगी मक़बूलियत
ग़ज़ल उलझी हुई व लफ़्ज परेशान क्यों हैं|

-शशांक कुमार द्विवेदी