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सपनों के गाँव में

चलो चलते हैं दूर कहीं, पेड़ों की छांव में,
कुछ पल बैठें मैं और तुम सपनों के गांव में,
मैं गाऊंगा गाने और तुम सुनती रहना,
आंखों आंखों में तुम कुछ-कुछ कहती रहना,
थक जाओ तो मेरी गोदी में सर रख लेना,
जुल्फों को सुलझाऊँ तो सुलझाने देना,
बैठे होंगे जहां पे हम, वहां मोर भी होंगे
सपनों का है गांव तो उसमें खेत भी होंगे,
खेत के एक कोने में कुछ पेड़ भी होंगे,
और हवा के मस्त मस्त से झोंके होंगे,

ऐसा होगा मौसम तो फिर भूख लगेगी,
लाओगी तुम टिफिन ओढ़ नारंगी चुनरी,
खाएंगे फिर हम-तुम साथ बैठकर खाना,
खाना खाके सुख दुख की बातें बतियाना,
फिर नीले “आकाश” में, काले बादल छाएंगे,
हाथ पकड़ एक दूजे का फिर हम भागेंगे,
बचने को हम खड़े होंगे पेड़ों की छाँव में,
आओ बैठे कुछ पल हम सपनों के गाँव में।

सपना टूटा, आंख खुली और आठ बजे गए,
नौ बजे का पेपर है और साढ़े आठ बज गए,
जैसे तैसे भाग-भाग के कॉलेज पहुंचा,
सर मिल गए गेट पे पूछा कहाँ था बच्चा?
मैं बोला सर कांटा मेरे लगा पाँव में,
वो बोले कि और जाओ सपनों के गाँव में!!!

– आकाश सिकरवार