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विरह

पतझड़ में पत्ते खिलखिलाता शज़र छोड़ देते हैं
उम्मीद शज़र की हालातों के चलते तोड़ देते हैं

ज़र्द पत्तों से पूछा है कभी
कि कैसा लगता है अपना घर छोड़ना

क्यों वो विरह के अंदेशे में पीले पड़ गये हैं
और साथ छोड़ रहे हैं

क्यों वो धरती के आगोश में समाना चाहते हैं
क्यों शज़र उनका हाथ इस वक़्त छोड़ देता है

क्यों शीत की दस्तक इनका जोड़
इतना कमज़ोर कर देती है

क्या शज़र इतना घमंडी है, निर्मोही है
उसको क्या उन पत्तों से ज़रा लगाव नहीं रहा

कितनी खुश्क मौत मरते हैं पत्ते
महज़ इसलिये कि वो शज़र की शोभा लायक नहीं रहे अब

अब शज़र को डगालों पर नये हंसते हुए पत्ते चाहिए
मगर प्रकृति ने किसी भी जुदाई को आसान नहीं बनाया

कई महीने शज़र पीले सड़े हुये पत्तों को
अपने से अलग कर ठंड में कड़कता है

खुद को तकलीफ देता है
पत्तों को इस शीत की चपेट से बचाने को
खुद से दूर कर देता है

और खुद उनसे बिछड़ महीनों तक
बिना उनके बर्फ से ढंका रहता है
ठंड अकेले सहता है

प्रकृति ने विरह आसान बनाई ही नहीं है
इंसान हो या पेड़
सब की एक सी कहानी है।

– शिवांगी शुक्ला