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विजय

जब समापन रेखा से ज़रा पहले
वो फिसल जाता है
उसके घुटनों की छिलन से ज़्यादा टीस
हृदय में उठती है
चारों तरफ़ उठता उपहास
उसे उठने नहीं देता
वो अपना सारा संबल खींचता है
पर तुम्हारी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता

थका हुआ सा वो फिर खड़ा है सिर झुकाए
बदन को झाड़कर चल पड़ा है
उस ओर
जहाँ प्रारम्भ की रेखा है
तुम विजय को क्या समझोगे…
तुमने पराजय का मुँह नहीं देखा है

– अंकित गोयल