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वजूद

मेरा अपना वजूद के जिसने
ख़ुद को इक दरगाह बना
ओढ़ लिया तुम्हारे इश्क़ को।
मेरी सांसे खिलती हैं किसी
जोगन के फ़ूल सी इस दरगाह पर
अकसर महक जाते हैं लम्स-
मेरे होंठो पे,मेरे हाथों में
और दुआओं में ठहर जाता है !लोबान
तुम्हारी क़सम इस महक को
जब घूंट- घूँट पीती है रूह
सांसों को प्याला बना,
जिस्म की दरगाह में जैसे
इश्क़ की हरारत, उतर आती है।
इन आँखों का तसव्वुर सच!
तुम्हें ले आता है। और पूरा
वजूद हो जाता है, तुम और
मैं से सिर्फ़ हमारा,सिर्फ़ हमारा,
सिर्फ़ हमारा।

सुनंदा जैन अना