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मैं समझता हूँ

समझता हूँ, जब रुंधे गले से तुम
मेरे घर न आने का कारण पूछती हो,
समझता हूँ कि मुझसे बात करने के बाद शायद
घंटो सिर्फ मेरे बारे में खयाल आते है तुम्हें
समझता हूँ उन दो मिनट वाली बात की अहमियत,
जानता हूँ कि तुम कही न कही अकेली पड़ जाती हो अब,
मुझे पता है आज फिर दवा नही ली होगी तुमने
ये भी है खबर की आज फिर घुटनो में दर्द उठा होगा तुम्हे
पर इससे अब कुछ अंतर रहेगा कहाँ,
इससे बात अब बनेगी कहाँ!
पता है सब कुछ मुझे,
समझ में है सब कुछ मेरे
पर इससे फर्क अब पड़ेगा कहाँ!
जब घर जैसा कुछ है ही नही यहां !

पता है आज ज़िन्दगी में अंधेरा क्यों है?
क्योंकि बीस बरस से रोज़ सुबह मिल रहे वो बोसे,
अब यहां नहीं हैं,
अब दाल में पानी है, और तरकारी बेनुक्स नहीं,
क्योंकि अब ‘आऊ रे नींदारिया’ गाने वाली
आवाज़ कानो मैं पड़ती ही नही,
जब तक वो आवाज़ नहीं
तब तक इस ज़ेहन में उजास है कहाँ!
जो तुम नही तो अंधेरा ही सीने से लपेटे
सोया है रोज़ तीनो पहर,
शायद इस दौर से तुम भी बेखबर नही,
शायद हिज्र झरोखों मैं तुम्हारे कानो मैं
मेरी अनसुनी चीखे बता जाता है,
पर दर्द अब कम होगा कहाँ!
और फर्क पड़ेगा कहाँ
जब घर जैसा कुछ है ही नही यहां!

– प्रांजल मिश्रा