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मैं बड़ी हो गई हूँ

पता है अब मैं सच में बड़ी हो गई हूँ
नहीं होना चाहती थी बड़ी
क्यूंकि जब कोई किसी को
सौंपता है अपना अल्हड़पन
तो ये अकेला नहीं होता
सौंप देता है साथ इसी के
अपने क्वारे खवाब
मासूमियत भरी पलकों में
जो बचा कर रखे ज़माने से
इसी के साथ सौंपता है
अपनी अनछुई ज़िद
जिसका अहसास उसे खुद
भी नहीं होता

तुम्हें देख कर अचानक
कहीं से अल्हड़ता यूं
आ जाती है जैसे
बस तुम्हीं से बावस्ता थी
तुम से ही था वजूद इसका
और तुम्हीं में इसे जज़्ब होना था
पर बार बार ज़माने की जो
रवायत तुमने निभाई है
मासूमियत मेरी आज़माई है
अचानक मेरी ज़िद बदल गई है
और वो मेरी अना में ढल गई है

तुम्हें अब वो नज़र नहीं आएगी
मुझसे सहम कर लिपटी है
मुझमें ही समा जाएगी
मैंने अल्हड़ता को नक़ाब दे दिया है
हर बात उसे परे कर बोलती हूँ
बोलने से पहले सोचती हूँ
सच है न की अब मैं बड़ी हो गई हूँ

-सुनंदा जैन ‘अना’