You are currently viewing बस यूँ ही

बस यूँ ही

तुम्हारी बेरुख़ी का आसमान
बहुत छोटा है
और मेरी ज़िद के पंख
तारा मछली की तरह
हर बार उतने हो जाते हैं
जितना काटो इन्हें
ज़रा सोचो तो, ये बेरुखी मेरी नहीं
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी ख़ुद की है
तुम्हारे नाम को आदत लग गई है
मेरी साँसों की
तुम्हारे चेहरे को
मेरे ज़हन का सहारा है

तुम्हारी धड़कनों का ठिकाना मेरा दिल है
तुम्हारे ख़्याल, मेरे ख़्वाबों में ज़िंदा हैं
मेरी नज़्मो की रगों में बहते हो तुम
यदि अपनी बेरुख़ी से तुम
मुझे ज़रा भी मारने में
कामयाब हुए तो
सोचती हूँ मैं कि मेरी जान
बिना नाम, बिना चेहरे
बिना धड़कन, बिना ख़्याल
बिना बहाव
तुम कब तलक
ज़िंदा रहोगे ?

– सुनंदा जैन ‘अना’