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पुरवाई

बंजर सी मेरे मन की धरती पर
कुछ बूँदे यूँ बरसाई थी
तुम आयी थी पुरवाई सी

सावन की पहली बरखा सी
झूम उठी थी कारी बदरा
इक अल्हड़ सी अंगड़ाई सी
तुम आयी थी पुरवाई सी

नर्म धूप के जाने पर जब
सर्द सी ये हवा चले
ठिठुरते उन एहसासों के लिए
तुम गर्म रजाई सी
तुम आयी थी पुरवाई सी

कोयल बोली पत्ते फूले
दिल भी संग-संग झूम उठा
मन में उम्मीदें कुछ मचली
जैसे पेड़ों पर अमराई सी
तुम आयी थी पुरवाई सी

होश जो आया तपता सूरज
मन का आँगन थार हुआ
राम ही जाने क्या था मतलब
कैसा हममें प्यार हुआ

कठिनाई के उस रस्ते पर
हाथ जो थामा था तुमने
मैं तो भूल चुका था लेकिन
उसमें वही रसाई थी
तुम आयी थी पुरवाई सी..

– अंकित गोयल