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परिंदा

सूनी सूनी सी सहमी हुई उसकी आँखों में हमारे लिए विश्वास से ज्यादा डर था । धारदार पंजे जो शायद शिकार के लिए ही बने थे । लंबे काले पंख जिनको फैला कर वो हमें अपने असली वजूद का अहसास करा रहा था । जाने क्या हुआ था उसके साथ जो अचानक हमारी छत पर ऐसे आ गिरा मानो कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ हो । हम बच्चे तो क्रिकेट खेलने में व्यस्त थे और अब उसे लेकर उत्सुक और भ्रमित । अब वो तो ठहरा छोटा सा पंछी बेचारा । अपना धर्म, जाति, गोत्र बताने से रहा । तो माँ ने उसका नाम कालू रख दिया । पूरे घर पर जैसे उसका राज था । कभी सोफे पर, कभी डाइनिंग टेबल पर तो कभी फ्रिज के ऊपर । हमारे साथ खाना खाने में उसे जरा हिचक न होती । हमारी थाली के पास आकर वो अपनी छोटी सी गर्दन हिला हिलाकर किसी नादान बच्चे की तरह हमसे खुद को खिलाने की फरमाइश करता । उसकी मजे में कट रही थी ।

यूं ही वक्त बीतता गया। इस बीतते वक्त के साथ वो भी बड़ा हो चुका था । लंबी उड़ानें उसके लिए आम बात थी । हमारा घर अब उसकी दुनिया का एक बहुत ही छोटा सा हिस्सा मात्र थे। उसकी उड़ानें बड़ी होती जा रही थी और हमारे घर आने का सिलसिला छोटा । ऐसा महसूस होता था मानो बेटा बड़ा हो गया है और जिन्दगी की भागदौड़ में नई ऊंचाइयां छूते हुए अपने घर-आँगन और माँ बाप से दूर होता जा रहा है। आज समझ में आया था कि जब बच्चे जिन्दगी की रेस को जीतने के लिए अपनों को हरा देते हैं तो उनपर क्या बीतती है। मैं उदास था । धीरे धीरे उसका घर आना जाना भी कम हो गया । बरगद के उस पेड़ पर भी वो कभी कभार ही नजर आता । इस बात को बरसों बीत चुके हैं, लेकिन आज भी जब कभी घर जाता हूँ तो एक नजर उस बरगद के पेड़ पर जरूर जाती है और दिल करता है जोर से कालू-कालू चिल्लाऊं । शायद कोई सुन ले । शायद कोई छत की मुंडेर पर आ धमके…….

-अमित कुमार गुप्ता