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पत्ता

मार्च की अलसाई धूप,
खाली सड़क,
गुनगुन हवा,
खाली सड़क पर,
पूरा मैं,
शुक्र की सुबह-सुबह।

सरसराती सरगोशियां,
छू कान,
भाग जाती थीं,
एक जाती,
एक आती,
आते-जाते सताती थीं।

सब दरख़्तों के परिंदे,
निकल पड़े थे,
बीनने,
थोड़े तिनके,
कुछ इरादे,
और ज़रा सी नींद भी।

एक पत्ता,
जाने कहाँ से,
आया और लिपट गया,
जूतों से,
उनकी लेस से,
लेस के एगलेट से।

ज़र्द रंग,
मिज़ाज फ़ीका,
ज़ईफ़ शक़्ल,
सूखा टुण्ड।
माथे पर थे दाग भूरे,
और आँखें बुझी हुई।

मार्च में,
उगते हैं पत्ते,
खिलती हैं कलियाँ,
लगते हैं फ़ूल,
रुत-ए-बहार में टूटा पत्ता?
मैं सोचता हूँ, कैसे, क्यों?

कैसे का जवाब क्या?
क्यों का उत्तर,
एक और “क्या”।
उठा लिया वो पत्ता मैंने,
और रख लिया,
किताब में।

हूँ मैं मुन्तज़िर अब,
पतझड़ों के,
मौसम का,
के शरद जो आए तो,
ये पत्ता उसको,
नज़र करूँ।

– प्रद्युम्न आर. चौरे