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पंछी

छोटी सी थी वो जब हमारे घर वो आयी थी।
गुमसुम, मासूम सी सब के दिल की चाहत थी।

रोज सुबह सबको जगाती।
कभी इधर घूमती, कभी उधर भाग जाती,
तो कभी उस टेबल के नीचे छिप जाती।

भाई की चहेती को कोई डांट न पाता,
वो पापा के साथ खाती-खेलती

एक दिन हुआ ऐसा कुछ ,कोई न था उसके पास।
देख लिया उसने झरोखे से बाहर।।

करने लगी उड़ने की जिद्द,
कितना समझाया कितना डराया।
आखिर कर दिया उसको कैद।।

अब न दौड़ती अब न छुपती।
रहती अब गुमसुम सी बैठ।।

हम हारे उसकी जिद के आगे।
तोड़ दिए सारे धागे।।

दिया उसके पंखों को खोल।
बोला जा जीत ले आसमाँ तू दिल खोल।।

उसने अपने पर फैलाये देखा आसमान की ओर।
जैसे कह रही हो आ रही मैं तेरी ओर।।

उड़ चली वो अपने पर फैलाये सपनों की ओर।
फिर दुबारा न लौट आयी वो हमारी ओर।।

– नितिन भुमरकर