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निवेदन है मेरा

निवेदन है मेरा ,
कफन की चादर निकलने न देना,
दोहरे मापदंडों की शिकार- लाश मैं,
दो गज जमीन तो दे देना !

जनहित की सुरक्षा का वादा था संविधान का,
दलालों ने मेरी जमीं का सौदा कर दिया ,
धन छिपाने की प्रवृति नें मुझे लाश ,
दि्वर्थक कानून ने श्मशान पहुँचा दिया !

निवेदन है मेरा ,
कफन की चादर निकलने न देना !

कृत्रिम कमी और अवैध संतुष्टि,
आज बाजारू समाज के नियम हो गऐ,
बात की थी ईमानदारी की तो ,
अपने ही मुझसे दूर हो गऐ !

स्वयं में झाँक लेगा इंसा तो दर्पण न माँगेगा,
मेरी रूह को अब सुकून कैसे मिलेगा,
राजनीति जिंदा हो पाएगी गर कुछ लोग जिंदा हों,
पर अराजकता के दलालों से सौदा कौन कर पाएगा!

निवेदन है मेरा ,
कफन की चादर को निकलने न देना,
बुनियादी ढाँचे में व्यापक परिवर्तन तो न पाया ,
पर दो गज जमीं जरूर दे देना !

औसत वृद्धि दर औसत इंसा न दे पाई ,
अर्थव्यवस्था कैसी यह संतुष्ट न कर पाई ,
शीघ्रातिशीघ्र न्याय को घुन खा रही है,
खुफिया तंत्र वहाँ चौकीदारों से मिल गई है !

इस ज्वलंत मुद्दे को नागरिक रोग न मान पाया है,
जब तक दलाल दवाई ही ढूंढ लाया है ,
मानती थी स्वयं सशक्त मैं पहले ,
यह क्या नपुंसकों ने मुझे मौत के घाट उतारा है !

निवेदन है मेरा ,
कफन की चादर सरकने न देना,
राज छिपे हैं इसमें दोहरे मापदंडों के ,
पर दो गज जमीं जरूर दे देना !!

–  हरिशंकर कंसाना ‘हरिभाई’