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दर्द

दर्द जब शब्दों में बहता है,
गीत बनता है,
कविता में उभरता है,
कहानी में उतरता है,
अपना अंत ढूंढ़ता है।
दर्द जब आँखों से छलकता है
समुद्र बनता है
नमक से भरा, गहरा, ठहरा
तूफान नहीं बुलाता,
झरने की तरह गिरता है।
काँटेदार झाडियों सी बातें,
नुकीले पत्थरों से ताने,
किनारे पर उगे सुंदर पलों से फूल
संग बहा ले जाता है।
दर्द की रेखाएँ होती हैं,
माथे पर सिलवटों की तरह,
गालों पर उतर आई बूँदों की तरह,
पुरानी डायरी में रखे सूखे फूलों
से बने दागों की तरह,
पीली पड़ी तस्वीरों में स्मृतियां ढूंढ़ते हुए,
नैनों के कोरों पर उभरी
उदास मुस्कुराहटों की तरह,
सूखे होंठों पर अचानक बन आयी,
बेस्वाद, पीड़ा से भरी
पपड़ियां की तरह।

और ये रेखाएँ,
हम उकेर देते हैं, सफेद पन्नों पर,
कभी स्याह, कभी नीली,
कभी हरी, कभी लाल।
और एक दिन…
शब्दों का परिधान पहनी रेखाएँ
मिल जायेंगी एक दूसरे से,
और जाल बना लेंगी।
जिससे या तो दर्द का दम घुट जायेगा,
या दर्द सदा के लिए,
उसी जाल में फँसकर रह जायेगा।

-अविनाश भारद्वाज