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डर

कितना डरते हैं, लोग यहाँ….
कुछ पुरुष भी डरते हैं,
कुछ औरतें भी……
बच्चे और तो और जानवर भी डरते हैं…..
सुना है पेड़-पौधे भी डरते हैं….?
क्यूँ डरते हैं…?
ऐसी कोई वजह भी नहीं डरने की…
सब तो तय है,नियति के हाथों..

ऐसा नहीं कि नास्तिक नहीं डरते….
वो तो और ज़्यादा डरते हैं…
वो मूर्तियों से डरते हैं, ग्रन्थों से डरते हैं….

मतलब हर कोई डरता है….
जबकि हर कोई जानता है कि डर,
कभी ज़मीन पे नही;;बल्कि सोच में चलता है…..
जितनी लंबी सोच…उतना लम्बा डर का ब्लैक कारपेट…

कभी-कभी किसी के मजबूत पाँव के निशान,,,
कुछ मोटिवेशनल बातें….
कुछ पक्के इरादे, डर को सोच में डाल देते हैं…
आख़िर इन सबने डर को कितने पास से खेला है….
बाज़ी जीती थी.. ब्लैक कार्पेट रेड ऐसे ही थोड़े हुआ..
फटते दिमाग से बहता लहू….
रक्त-रंजित कर गया कारपेट को..

कुछ लोग डर की सियासत जानते हैं..
वो नेता बन जाते हैं…
तो कुछ…सलाहकार….
इस क़दर फुटपाथी बना जाता है,डर….
कि लोग ज़हन के भी फुटपाथ पे ही टहलते हैं…
और कहते हैं, सेफ लाइफ…

कुछ डर सच से पैदा होते हैं….
अस्वीकार किये जाने का डर..
असल डर तो यही है,,,,
इंसानियत का मख़ौल उड़ाता ये डर
सभी डरों को जन्म देता हैं….
कुछ पीढ़िया चुक जाएंगी…
कुछ नस्लें तबाह हो जाएंगी…

कहते हैं कि कलयुग ऐसा ही होता है।

  • सुनंदा जैन ‘अना’