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छत की मुंडेरों तक

बर्फ के फाहे गिरते हैं जब,
थोड़ा चित ठहरता है
थोड़ा सा मन मचलता है
जैसे कि, सूरज शाम में
अपने दोस्तों को
चाय की चुस्की के साथ
बड़े ही बेफिक्री से विदा करता है।

सुबह से गिर रही बर्फ
शाम तक एकदम ताजी बनी रहती है
तुम्हारे इंतजार में
कि तुम दिनभर की
व्यस्तताओं को परे रखकर आओ।

जैसे चांदनी सर्द रात में
छत की मुंडेरों तक
आहिस्ता-आहिस्ता गिरती रहती है
हल्की नीली श्वेत बर्फ की फाहे,

तुम्हारा होना इनको इतना सुहाता है
कि इनकी तासिर गुलाबी हो जाती है
रूप में, रंग में और इश्क में ।

-पवन कुमार मौर्य