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चालीस पार

 

 

सुनो….प्रिये…..
क्या संभव है
फिर से तुमसे प्यार करना
वो रात और दिन को जीना
माना, अब वो खिंचाव ना
होगा मेरे अंदर, जो तुम्हे
बांधे रखता था पल पल
प्यार की गलियों से निकल,
अब भटक रही हूँ
गृहस्थी की गलियों में।

याद आता है, तुम्हारा वो शरारत से देखना
देख कर मुस्काना, कनखियों से इशारा कर
बात बात पर छेड़ना
सिहर जाती थी मैं अंदर तक…
फिर से करना चाहती हूँ तुम से प्यार
क्या हुआ जो हम तुम हो गये चालीस पार….

मेरे प्यार का मतलब नहीं है, मात्र सहवास
तुम्हे सामने बैठा कर निहारना चाहती हूँ
घंटो बातें करते रहना चाहती हूं
रूठते , मनाते हुये,
फिर से देखना चाहती हूँ,
तुमको हँसते हुए।
जीना चाहती हूँ तुम में,
तुम को जीते हुए।
ये आवाज़ की तल्ख़ी
जिम्मेदारियों से है,
उलझे बाल, सब की तिमारदारियों से है
इससे तुम ना यूँ नजरे चुराओ

है आकर्षण आज भी, जो जागा था
देख कर तुमको पहली बार….
घर में राशन पानी भरती हूं,
पर आत्मा से रोज भूखी सोती हूँ।
साथ व स्पर्श के लिए बैचेन रहती हूँ
जानती हूँ, तुम हो अपने काम में मशगूल
व्यस्तता का मतलब नहीं है
लापरवाही, ये भी जानती हूँ…..
मुझे तो मात्र चाहिए तुम्हारा साथ
नोकझोंक और पहले सी मनुहार
रूठने पर मनाना, न मानने पर
तुम्हारा प्रणय निवेदन करना
बहुत याद आता है…..
दे दो मुझे एक प्लेट नमकीन प्यार
रोज़ शाम की प्याली के साथ….
औ मीठा सा नित्य चुम्बन,
सुबह की लाली के साथ…
लौटा दो मुझे फिर से मेरा संसार

आओ….ना…. प्रिये…….
फिर से कर ले हम पहला प्यार
क्या हो गया जो हो गए हम चालीस पार…..

– गीतांजलि गिरवाल