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कभी देखा है तुमने?

कच्ची दीवारों के पीछे पसरे अँधेरे को
कालिख से पुते सवेरों को
कभी देखा है तुमने?
बड़ी बड़ी फैक्टरीयों में
बारूद से सने उन नन्हें हाथों को
उनकी धीमी जलती साँसों को
कभी देखा है तुमने?

किसी दुकान के छोटू से
पूछा है कैसी है ज़िन्दगी उसकी?
या टेबलों को साफ करते समय उसका उदास चेहरा
कभी देखा है तुमने?
अखबार बेचती उन अनपढ़ आंखों में आंसू
चाय बेचते हाथों को ठंड में कांपते
कभी देखा है तुमने?

घरों में सफाई करती उस लड़की को
किताबें झटकते हुए
ललचाई नज़रों से किताबों के पन्ने पलटते
कभी देखा है तुमने?
सड़कों पर भागते दौड़ते खिलौने बेचती
मासूमियत और बचपना बेचती उन नन्ही रूहों को
कभी देखा है तुमने?
बताओ क्या कभी देखा है तुमने?

– कृति बिल्लोरे