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औऱ आग ना लगाइए

जलते जिंदा जिस्मों में और ना आग लगाइए।।
गर रंगीन चश्मा उतर गया हो तो थोडा पानी ले आइये।।

डंडे-गड़ासे-खुखरी जुगाड़ने से फुर्सत हो जाय तो
कुछ पल इंसानी जमात के साथ बिताइए।।

हो रहा रक्तरंजित इंसान ही हर बलवे में|
तलवारों और खुखरियों को बगल में छुपाइये।।

मिलो गले से, खाओ मिलकर प्रसाद-सेवइयां।
एक दूसरे की गलतियों के दफन को कब्र बनाइये।।

बहुत बने खानकाह-मन्दिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारा
सब बैठ कर बात कर सको ऐसा एक चबूतरा बनाइये।

बहुत जलवे दिखाए सबने रंग-रंग के झण्डे के नाम पर।
पा सके सुकूँ झोंके से जिसके एक ऐसा झंडा लहराइये।।

जिंदा जिस्मों की गिनती से गर फुर्सत मिले।
बचे हुए लोगों की पुतलियों पर अजीब सा ख़ौफ़ देख आइए।।

गर मरते-जलते की चीखें ना सुनाई पड़ रहीं हों तो।
एक धारदार खुखरी की नोंक अपने सीने में धसाइये।।

– सुरेश वर्मा