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एक दिये की रोशनी

घने स्याह अंधेरे में
वो दूर से नजर आती
एक दिये की रोशनी
बड़ी खूबसूरत लगी मुझे
जब देखा तो
देखता ही रहा
अनजाने में उसकी ओर
दौड़ता मैं रहा
जब करीब पहुँचा
तो दिया फड़फड़ा रहा था

अचानक समझ आया
कि मैं ही था
जो थककर हाँफ रहा था
वो मेरी ही साँसे थी
जो दिया बुझाने पर आमादा थी
अगर न करता काबू उन्हें
घने स्याह अंधेरे में गुम हो जाता मैं
फिर से दिये की वो रोशनी
भला कैसे जलाता मैं
मुश्किल से सहेजा उस दीये की लौ को
फिर हथेली में उठा लिया
वो, जो बुझती सी जा रही थी

अब जिंदा है, महफूज है, मेरे पास है
मैं उसे लेकर
इस घने अंधेरे में
भटकता चला जाता हूँ
मंजिलों का तो पता नहीं मुझे
मगर राहें खोजता चला जाता हूँ
है कोई और अगर इन अंधेरी राहों में
जिसे रोशनी की दरकार हो
तो मुझे पा ले
जरा धीमें आना
कहीं सांसो का तूफान
इस रोशनी को, अपने साथ न ले उड़े
मैं वही हूँ जहाँ
इस अंधेरे में राह दिखाने वाला
एक और सिर्फ एक दिया है..

– सौरभ विन्चुरकर