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इकतारा

तेरे मन से मेरे मन को
प्राण रतन से जीवन धन को
एक सूत्र में बाँध रहा था
दो धारों को साध रहा था
पथ भूल गया वो हरकारा
लो तोड़ दिया ये इकतारा

ये इकतारा जिस पर नाची
मीरा की पायल झूम-झूम
ये इकतारा जिस पर बाँची
तुलसी ने मानस घूम-घूम
इकतारा जिससे क्रौंच-युग्म
के पीर से आदिस्वर फूटा
इकतारा जिससे नाद उठी
राघव से जब पिनाक टूटा
सूरत-सीरत बिगड़ी उसकी
रोता फिरता भरता सिसकी
है तार-तार ढांचा सारा
लो तोड़ दिया ये इकतारा

इकतारा जिस पर बिंधने को
उतरी हैं लकीरें हाथों की
इस चंदन तन की दी काठी
स्वर नूपुर के धुन बातों की
दे दी अधरों की कोमलता
अपनी पलकों का धार दिया
जिसके गुँजन-कलरव खातिर
प्राणों को सह स्मित वार दिया
कर डाला खुद उसका तर्पण
अवशेष-कलश कर दूँ अर्पण
ले जाये गंगा की धारा
लो तोड़ दिया ये इकतारा

मैंने तोड़ा या खुद टूटा
सच झूठ किसे क्या बतलाऊँ
घुट-घुट कर अंतर घट फूटा
रिसते हैं आँसू दिखलाऊँ?
दुनिया वाले इतना जानें
ये क्षेम रहेगा जीवन भर
क्यों प्रेम का इकतारा बाँधा
खुद प्रेम कहेगा जीवन भर
अवसाद नहीं यह इक क्षण का
मन टूट गिरा जैसे मनका
भक्ति में भटका बेचारा
लो तोड़ दिया ये इकतारा

सुप्रिया तिवारी