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आख़िर क्यों दर्द नहीं होता है ?

रेल की पटरी पर खून के छींटों वाली रोटी जब हिसाब मांगती है,
पैर पर उकरे छाले जब दर्द की टीस मारते हैं,
भूखे- बिलखते बच्चे जब तुमसे सवाल पूछते हैं ,
आखिर क्यों दर्द नहीं होता है ??

इमारतों पर लगी ईंटों को जिस मजदूर ने उठाया,
आज जिस महल में बैठे तुम बड़ी-बड़ी बातें करते हो,
तुम सुख-सुविधा से जी रहे हो,
वो सिर्फ़ जीने की सुविधा मांग रहे हैं फिर भी
आखिर दर्द क्यों नहीं होता है ??

संवेदनाएं जब मर जाती हैं,
मुख जब मौन पर जाता है,
आंखें जब देखकर भी अनदेखा करती हैं,
इंसान जब जिंदा लाश बन जाता है तब भी
आखिर क्यों दर्द नहीं होता है ??

कभी तो, कभी तो तुम्हे इनके सवालों का जवाब देना होगा,
भीगती आंखें, चीखते बच्चें, बेबस-सी लाचार माएँ, मजबूर पिता, हालात का मारा हर एक मजदूर
इन सभी के सवालों का कभी तो जवाब देना होगा कि
आखिर क्यों दर्द नहीं होता है।।

स्वेता दत्त