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बे-पैहरन चाँद

ठिठुरकर शाम
बिस्तर में दुबक गयी
झील के उस पार
आफताब जाते देखा
आज फिर बेपरवाह बे-पैहरन
चाँद आया है
कुछ सितारों के साथ
उस आसमान में

इन सर्द हवाओं में कैसे
जाड़े का मौसम काटा जाएगा
बिना कोई चादर ओढ़े
सोच रहा हूँ मै भी
कुछ तरकीब पूछ लूँ
उस चाँद से
पूछ लूँ क्या अपने पास लावा रखता है?
या कोई याद
जो लहू को गर्म रखती हो…

– कार्तिक सागर समाधिया