You are currently viewing आवाज़ें

आवाज़ें

मैं बोना चाहता हूं आवाज़ें
अपनी हर कविता में
आवाज़ें जो सिर्फ अपनी सुनें
जिन पर बस न चले
किसी सांड जैसे शोर का
जो खड़ी रहें मेरे साथ
मेरे कंधे से लग कर
धूप और छांव की
परवाह किए बग़ैर।

आवाज़ें जो आईने सी निश्छल
और पाकीज़ा हों
मुहल्ले की उस विधवा के
दुपट्टे की तरह
जो अब छत पर नहीं सूखता।

आवाज़ें , जिनमें सपने देखे जा सकें
जिनमें पढ़ी जा सकें
प्रेम कविताएं
उस वक्त में भी
जब हवाओं के माथे पर
नफरतें रक्म कर दी गई हों।

आवाज़ें , जिनको गुनगुनाया जा सके
सुर और ताल से आज़ाद हो कर।

नजमू सहर