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अस्तित्व

मेरे निष्प्राण शरीर को आस दो
सकल जीवन में अपने प्रेम की आवाज दो
व्याकुल से नैन मेरे वाणी भी अकुला गयी
तेरे दर्शन की संजीविनी का मुझे विश्वास दो
पथ पर पथरा गयी मेरी साँसें रात दिन
अपनी संवेदना का तुम मुझे एहसास दो

मैं विदा लेता हूँ इच्छाओं के मायाक्रम से
अपनी स्मृतियों से मुझे निकलने का हाल दो
संवेदना के जाल में यूँ उलझ गया हूँ मैं
मुक्त कर दो प्रेम से फिर से मुझे सँवार दो
मैं भटकता अकेला प्रेम के निर्वास पथ पर
मुझ पथिक को राह के गंतव्य तक संभाल दो

अपरिचित मैं हो गया हूँ खुद के ही अस्तित्व से
मेरी इस करुण दशा को मृत्यु की गोद में डाल दो|

– श्वेता पांडेय