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बचा हुआ काम

मैं बर्फ से भी कई गुना ज्यादा ठण्डा हो चुका था। मेरे शरीर का तापमान कितना रहा होगा मुझे याद नहीं, लेकिन मुझे जैसे ही कोई छूता तो उसके पूरे शरीर में भी ठण्डक की सुरसुरी दौड़ जाती थी। शायद इसलिए लोग मुझे कुछ सेकण्ड छूने के बाद अपना हाथ तुरन्त पीछे खींच लेते थे। ये ठण्ड के कारण था या कुछ और मुझे याद नहीं; पर मेरा पूरा शरीर अकड़ चूका था। मेरे हाथ, पैर और मुँह ने मेरा आदेश मनने से बिल्कुल मना कर दिया था। ऐसा लग रहा था जैसे मुझसे कई सालों से रुठे हो, और अब अपना आखिरी फैसला सुना चुके थे।

तभी मेरे मुँह के ठीक सामने मेरी बेटी आकर बैठ गई। उसका चेहरा पत्थर से भी ज्यादा कठोर हो चुका था। उसकी आंखे तपती दोपहरी की खाली सड़कों जितनी खाली थी। मेरी तमाम कोशिशों के बाद भी मैं, उसकी आंखों में नहीं देख पा रहा था। “किसी भी खाली जगह को देखना बहुत मुश्किल होता है। क्योंकि वो आपको तब तक देखती रहती है जब तक कि आप उससे अपनी नज़रे ना हटा ले।”
अचानक मेरी बेटी ने अपना मुँह मेरी छाती में धंसा दिया। और चीख-चीख कर रोने लगी। उसे यूँ रोता हुआ देखकर मेरे भी आंसू निकलने को थे, लेकिन मैंने उन्हें रोक लिया। क्योंकि मेरा किरदार मैं, अब सिर्फ आदमी होना ही भर नहीं रह गया था। मैं आदमी के साथ-साथ एक बाप का किरदार भी निभा रहा था। और “मैं ये बात पूरे यकीन से कह सकता हूँ दुनिया में बाप का किरदार लिखने वाला भी एक बाप ही रहा होगा। क्योंकि लड़के से आदमी बनने की प्रक्रिया में आंखों के आंसू सूखा दिये जाते हैं, और आदमी से बाप बनने की प्रक्रिया में कमजोर या हताश होना बिल्कुल मना है।” “किरदार लिखने वाला भी शायद आदमी के बाद बाप का किरदार निभा रहा होगा।“

“यदि दुनिया में सबसे बड़ी नाकामयाबी के बारे में लिखा जाए तो उसमें एक पिता का अपनी रोती हुई बेटी के आंसू न पोंछ पाना सबसे ऊपर होगा।” और आज उन नाकामयाब पिता में मेरा नाम भी जुड़ चुका था। मेरी बेटी की आंखों से निकलते हुए गर्म आंसुओं ने मेरी छाती में छेद कर दिया था। मेरे शरीर के एक-एक हिस्से में खून की जगह अब मेरी बेटी के आंसू दौड़ रहे थे। बस ये आंसू शरीर की नाड़ियों से बहते हुए दिल तक नहीं पहुंच पा रहे थे। वो दिल जिसमें मेरी बेटी के बचपन की असंख्य यादें जुड़ी हैं। अपनी ज़िंदगी के सबसे हसीन और खुशनुमा लम्हों के बारे में सोचने पर सबसे पहले बचपन की यादें सत्तर एमएम के पर्द पर किसी फिल्म की तरह सामने आ जाती है। इस लम्हें मैं, चाहता हूँ कि मेरी बेटी फिर से छोटी हो जाए। इस बार वो मुझे पापा नहीं बल्कि अपना दोस्त बुलाए। लेकिन आज उसे इस तरह रोता हुआ देखकर ये एहसास हुआ कि लड़कियाँ बड़ी नहीं होती है, वो बस समझदार हो जाती है।

यूँ लाचारों की तरह पड़े हुए मुझे याद आया कि कितना कुछ है मेरे पास करने को कितने काम बचे हैं, न जाने वो कैसे पूरे होंगे। ये बचे हुए काम बहुत निर्दयी होते हैं, “ये आपके पास तब आते हैं जब आपका बचा हुआ वक्त आपसे किसी महबूबा की तरह रुठ के चला जाता है, और जिसे आप चाहकर भी वापस नहीं पा सकते।” मैं हर समय काम का बोझ अपने कंधे पर लादा रहता था। मुझे हर चीज बस एक काम ही लगती थी। मेरे लिए हर एक बात बस काम खत्म करना भर रह गई थी।

ऐसा नहीं था कि ये काम को खत्म करने की आदत मुझे आॉफिस से लगी थी। मैं जब पढ़ाई करने के लिए घर से दूर गया तो उस पढ़ाई को भी जल्द खतम कर लेना चाहता था। इस दौरान जब भी मेरे माँ-बाप का फोन आता तो मैं उसे भी एक काम की तरह लेता था। मां-बाप से फोन पर बात वाले काम में मैंने खुद को सुनने का काम दे दिया था। मां बार-बार मुझे पिताजी की बीमारी के बारे में बताती थी, और पिता से बात करने पर जोर देती थी। लेकिन मैं बात नहीं कर पाता था। क्योंकि मैंने खुद को हमेशा सुनने के काम के लिए ही तैयार कर रखा था; खास कर पिता से फोन पर बात करने वाले काम में। जिसके परिणामस्वरुप मुझे पिता के अंतिम संस्कार वाला काम भी जल्द खत्म करना पड़ा।

शायद मैंने शादी करने को भी एक काम ही माना था। ये ख्याल मुझे मेरी पत्नी को देखते हुए आया। जो मेरा सर अपनी गोदी में लिए बैठी थी। शादी के बाद ऐसा लगा जैस ये जिंदगी की कम्पनी में, मैं सीनियर हो गया हूँ। और मैंने अपना आधा काम करने के लिए एक औरत को रख लिया है। जिसे मैंने खुद को और अपनी बेटी को प्यार करने का काम सौंपा था। और यकिन मानिए इस काम में वो मुझसे भी कई गुना बेहतर थी। लेकिन धीरे-धीरे मुझे ये एहसास होने लगा था कि मेरी पत्नी अब अपने काम से उब रही है। शायद वो जिंदगी जीने को मेरी तरह एक काम नहीं मानती थी। और जैसे की मेरी बेटी अपना ज्यादा समय अपनी मां के साथ बिताती थी। इसलिए उसे भी जिंदगी जीने के काम से मुँह चुराने की आदत सी हो गई थी।

मेरा ये शक पूरे यकिन में तब बदल गया जब वो दोनों मेरे हर सवाल का जवाब “सब ठीक है” कह कर देने लगी। ये सब ठीक है कितना ठीक है, इसका पता मैं आजतक नहीं लगा पाया। लेकिन इतना जरुर पता चल गया कि “सब ठीक है” सब ठीक नहीं होता है। जैसा की मेरे साथ सब ठीक नहीं हो रहा था। ड्राइंग रुम के सोफे पर बैठे हुए मैंने देखा कि रुम की दीवार पर टंगी हुई मेरी फोटो पर इतनी धूल जम गई है कि किसी को देखने पर यह तक नज़र न आए कि इस फ्रेम के पीछे एक चेहरा भी है। शायद मुझे याद करना या मेरी फोटो की धूल साफ करना और उस पर माला चढ़ना मेरी बेटी और पत्नी के लिए “बचा हुआ काम” हो गया था।