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गोवा एक्सप्रेस वाली

रात 12:40 बजे। एसएमएस आया, ‘आप आओगे, अमित?’ मैंने उसे बताया नहीं था कि मैं उससे मिलने स्टेशन आ रहा हूं। दरअसल, उस समय तक तो मुझे भी पता नहीं था। 1:15 की ट्रेन थी। मैंने झटपट अपनी डुगडुगी बाइक स्टार्ट की और फर्राटे से स्टेशन पहुंचा। गोवा एक्सप्रेस अपनी स्केड्यूल्ड अराइवल टाइम तक लेट नहीं थी। उसके बाद ट्रेन डिले होते-होते 2.45 तक लेट हो गई। ट्रेन भोपाल स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर लगी। वो सो गई थी। प्लेटफॉर्म पे मैंने इसे 8-10 कॉल किये। नहीं उठी। उसकी AC कोच के दोनों डोर अंदर से बंद थे। फिर मैं अगली कोच से चढ़ा। मोबाइल-स्क्रीन के लाइट में बी-35 बर्थ ढूंढी। लेकिन उसपे कोई लड़का सोया था। सब मुंह ढांके सोये थे। दोबारा बर्थ नंबर देखा। उसे लगातार कॉल कर रहा था। अपर बर्थ पे कुछ हलचल हुई। एक कलाई चादर से बाहर निकली। फिर दूसरा हाथ, जिसमें मोबाइल था। मैं समझ गया कि ये वही है। उसका नाम पुकारा। उसने चादर झटके से हटाई और उठी। मैंने कहा कि पागल हो, कब से कॉल कर रहा हूं, ऐसी सो रही हो। वो बर्थ से नीचे आई। मैं उसे उजाले में दरवाजे के पास ले गया। ट्रेन चलने को थी। हम अब तक एक दूसरे को आंखें भर देख भी नहीं पाये थे। ट्रेन का 5 मिनट का स्टॉपेज पूरा होने को था। उस कोच वाले दरवाजे का विंडो डार्क था और प्लेटफॉर्म नहीं दिख रहा था। ट्रेन चल देती तो मैं समझ नहीं पाता। इसलिए मैं उसे अगले कोच तक ले गया। जिस दरवाजे से मैं चढ़ा था वहां। मैंने उसे मैक्सिमम निहारने की कोशिश की। जो अंत तक अधूरी ही रही। मैंने जैकेट के ऊपर वाले जेब से कैडबरी सिल्क निकली। ऊपर रखी थी कि कहीं मिलने की बेचैनी या आपाधापी में चॉकलेट देना भूल न जाऊं। वो बड़ा सा पैकेट मेरे जेब से एक तिहाई बाहर था। और पैकेट पे पिघलते कैरेमल का फोटो जैसे मेरे जेब से झांक रहा था। उसके लिए पत्थर होती मेरी फीलिंग्स भी पिघलने लगी थीं। मैं तो सिर्फ उसे निहारने में लगा था। उसने क्या कुछ कहा, मुझे याद नहीं है। सिवाय इसके कि ‘मोटू हो गए हो, अरे हेलमेट; वाह बाइक।’ मैं उससे क्या बोला, वो ही जाने। इस एक-डेढ़ मिनट के वक़्त-ए-दीदार के होते-होते ट्रेन सरकने लगी। हम आधे-अधूरे गले लगे। मैंने उसके कान में ‘लव यू’ फुसफुसाया।

मैं जानता था कि उसे छूटती ट्रेन का फोबिया है। लेकिन मैं कुछ देर और गेट से लटका रहा। ट्रेन सरपट होती इससे पहले मुझे उतारना था। अगर वो रोकती तो मैं अगले स्टेशन तक उसके साथ चल देता। मैं ऐसा सोच के भी आया था। लेकिन वो ऐसा कहेगी इसकी उम्मीद मुझे कम ही थी। मैं ट्रेन से उतरा और उसकी दिशा में कुछ देर कदम बढ़ाते रहा। गोवा एक्सप्रेस मेरा कुछ ले जा रही थी जैसे, जो मैं दौड़कर उससे छीन लेने को दौड़ रहा था। जब तक मैं ट्रेन के बराबर में तेज कदम बढ़ा सकता था, बराबरी की। कोच के दरवाजे पे उसे देखते गया। कोच आगे निकल गया। तो थोड़ा तेज दौड़ा। लेकिन अब वो कोच के दरवाजे से जा चुकी थी। शायद फोबिया के कारण! दरवाजे पे उसके ना दिखने पर मेरा मन भर आया और फिर आंखें। डबडबाई आंखों के साथ मैं स्टेशन से बाहर आया। हेलमेट लगा लिया। दिमाग में कुछ नहीं आ रहा था। स्टेशन के गेट के बाहर आया। और सिगरेट ली, जब ले ली तो दिमाग में आया कि मैं तो छोड़ चुका हूं। अपना मोबाइल देखा तो उसके ब्लॉक्ड कॉल्स और एसएमएस के कई नोटिफ़िकेशन थे। उसके एसएमएस के रिप्लाई करने के बाद उसे कॉल किया और उसे मिलने के इस क़िस्से का ज़िक्र किया। भरे गले और नम आँखों के साथ फ़ोन काटा।

– अमित पाठे