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रेलगाड़ी

भीड़ से खचाखच भरा डब्बा। हर तरफ बस अपनी मंज़िल पर पहुंचने की ख्वाहिश लिए बैठे लोग। कुछ चेहरे उदास थे तो कुछ खुशमिजाज़। कुछ ने नींद के आगोश में जाने के लिए दूसरों के कन्धों पर पनाह ले रखी थी तो कुछ खुद गौरवान्वित होकर किसी और का कन्धा बने हुए थे। आप मानें न मानें ऐसा कर हम में से कई लोग खुद को शक्तिमान से कम नहीं समझते। किसी की बिन मांगे मदद करने की वो अजीब और अनोखी सी ख़ुशी हमारी आनुवंशिक गड़बड़ी का एक हिस्सा है। वैसे भी यहां कन्धा बनने की परंपरा काफी प्रचलित है। किसी का कन्धा बनते-बनते हमें यह सुध नहीं रहती की जाने अनजाने हम उस मुकाम पर आ खड़े हुए हैं जहां शायद हमें खुद चार कन्धों की ज़रूरत आन पड़े।

बाहर देखने पर कभी हम खुद को गंदगी से घिरा पाते तो कभी दिलकश नजारों से पटी वादियां बाहें फैलाये हमारे इंतज़ार में खड़ी मिलती, जिन्हें देखकर ऐसा लगने लगे मानो वक़्त यहीं कहीं आसपास थम सा जाए| बस ऊपर वो नीला आसमान .. नीचे अनगिनत राज अपने सीने में छिपाए ये नागिन सी बलखाती घाटियां और इन सबके बीच कहीं खुद का अस्तित्व तलाशते हम|

जब वो ठंडी-ठंडी सी चंचल हवाएं चेहरे को नजाकत से छूकर निकलती हैं तो हम चाहे-अनचाहे अपनी इस जिंदगी वाली फिल्म के नायक बन जाते हैं| फिर तो इस जिस्म में दुनिया की हर तकलीफ और हर बुराई से लड़ने की ताकत सी आ जाती है| कुछ तो जादुई है उन हवाओं में.. कुछ तो अजीब सा है.. खैर..
राह चलते-चलते इस छोटे से सफ़र में हम चंद लम्हों के न जाने कितने सामयिक रिश्ते बना बैठते हैं| धीरे धीरे समय और सफर दोनों ख़त्म होता है| कल तक मैं जिस 4-5 साल की बच्ची को जानता तक नहीं था, जो कल तक मेरे लिए राह में चलते हज़ारों अजनबियों में से एक थी, आज ..अभी अपनी मां की गोद में बैठ मेरे सेलफोन से खेल रही है। खेलते-खेलते उसके दिमाग में उपजे दुनिया के सबसे अजीबोगरीब सवालों का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है| बेशक़.. कुछ देर बाद इनका स्टेशन आ जाएगा और ये परिवार अपनी मंजिल पर ख़ुशी-ख़ुशी उतर जाएगा| कुछ देर बाद शायद मेरी भी मंजिल पुकारेगी और मुझे भी इन हल्की-फुल्की यादों को एक भीनी सी मुस्कान के नीचे संजोकर यहां से जाना होगा| या इनके जाने के बाद कुछ ऐसे लोग आएं.. ऐसे राहगीर मिलें जो आखिरी स्टेशन तक मेरे साथ हों| खैर होने को तो कुछ भी हो सकता है| हो सकता है इन चंद घंटों के बाद शायद मैं जिंदगी में कभी इस बच्ची से दोबारा न मिल पाऊं| लेकिन इन सारी बातों के इतर अभी हम बस इस सफ़र में जिंदगी तलाश रहे हैं| ये सफ़र हमें इस मौजूद लम्हें की कद्र करना सिखाता है.. आज में जीना सिखाता है|

रेलगाड़ी के सफ़र में अगर तलाशा जाए तो पूरी जिंदगी का फलसफा मिल जाएगा|अक्सर हम एक गलती कर बैठते हैं| हमें मंजिल पर पहुंचने की इतनी बेताबी रहती है कि सफ़र को जीना भूल जाते हैं.. कोई नई बात नहीं कि इस सफ़र की तरह ही जिंदगी का सफ़र भी उम्मीदों वाली गाड़ी पर भरोसे के पहियों के साथ चलता ही रहता है| कई लोग आते हैं.. जाते हैं.. कुछ यादें देकर जाते हैं तो कुछ वादे लेकर जाते हैं लेकिन हमारा ये सफर कहीं रुकता नहीं बदस्तूर जारी रहता है।

जिंदगी की गाड़ी से कोई आज उतरेगा तो कोई कल| कोई दूर तलक साथ आएगा .. कोई आखिरी तक साथ निभाएगा तो वहीं कोई ट्रेन ही बदल जाएगा क्योंकि अगर राह बदल जाए तो ट्रेन बदलना ज़रूरी सा हो जाता है| हम मंजिल के प्यासे हैं लेकिन सारा रोमांच तो सफ़र ने अपनी मुट्ठी में छिपा रखा है और रही बात इस जिंदगी वाली गाड़ी की आखिरी मंजिल की.. तो भैया इसका आखिरी पड़ाव, आखिरी स्टेशन तो मौत है। खैर सफ़र हो या कहानी हो ..सबका जारी रहना ज़रूरी है| सफ़र में हैं तो जिंदा हैं|

अमित कुमार गुप्ता