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जोगन

सूरज पे ग़ज़लें कहती है
चंदा पे गीत बनाती है
खुद भटकी राहों में रहती
दुनिया को राह दिखाती है
इक जोगन कलम चलाती है
वो जोगन कलम चलाती है

जब धूल चरण की देने को,
रघुराम नहीं आते उसके
जब जूठी बेरी खाने को,
वो धाम नहीं जाते उसके
जब वो अपनों के हाथों ही
चौसर पर हारी जाती है,
और अपना धर्म निभाने को,
घनश्याम नहीं आते उसके
तब वो छन्दों की चादर बुन,
खुद अपनी लाज बचाती है

उसके नूपुर के झंकृत स्वर,
जब तलवों में चुभ जाते हैं
उसकी आशा के सब जुगनू,
जब रातों में छुप जाते हैं
प्यालों की मजलिस में रह कर
वो खुद को प्यासा पाती है,
उसकी इच्छा के सब दीपक,
कुंठित होकर बुझ जाते हैं
तब जीवन चौखट पे बैठी,
वो बंदनवार सजाती है
काली स्याही के आँसू भी,
गेरू रंग-रंग जाती है
इक जोगन कलम चलाती है
वो जोगन कलम चलाती है

-सुप्रिया तिवारी