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बसंत

हवाओं की साजिशें थीं
पतझड़ के आते ही
ये पत्तियाँ पीले हो झड़ गए …..
मगर
इन पत्तियों की जिद्द रही कायम
जमींदोज होने से पहले-पहल तक
हल्की सी हवाओं की एक छुवन से
खनक छोड़ते रहे अरण्य में,
हवा के स्पर्शमात्र के झोंके से फुर-फुर उड़ते रहे
और, अरण्य को बहका दिया सुमधुर संगीत से,
इन्हीं खनकती भीनी-भीनी संगीत से
सराबोर कर दिया पूरे नग्न ठूठ
पेड़ों की कतार को…..
इन टूट कर जमींदोज होते पत्तों ने
नग्न बियाबान में ठूठ पेड़ों पर नई कोमल-
स्नेहिल पत्तों के आने से पहले ही,
अपने कर्णप्रिय-थिरकती-स्पंदनयुक्त गीतों से,
अरण्य को बसंत कर दिया था……..

– सुरेश वर्मा