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पगडंडी

इस शहर से दूर
इक् दश्त में हम अकेले
और बहुत लोग
हमारे शहर से दूर होने का जश्न मनाते हैं
हम बहुत टेढ़े भी तो हैं
एकदम दश्त में सिमटी
पगडंडी की तरह

कभी नज़र आती कभी छिप जाती
पर पता है क्या?
इस पगडंडी की घास दबी होती है
ठीक वैसी जैसे
मेरे मन में उगी खरपतवार

फिर भी जब दश्त
में भटकने का ख़तरा हो तो
ये पगडंडी का साथ
जान बचा सकता है
इसपे कई राहें नहीं निकलती न

और पता है हम भी
अब अपने अकेले होने का
जश्न मनाते हैं
जानते हैं
कि हमसे ही मंज़िल मिलेगी
कोई हैरान भटका
हुआ ठहरेगा भी तो कितना

आख़िर को पगडंडी हो या रास्ता
चलते हुए लगते हैं
मगर चलते नहीं
इनपे चलने वाले लोग
चलते है।
हमारे सीने पे पांव रख कर।

-सुनंदा जैन ‘अना’