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होली

अरे वो भौजी कहाँ नुकाएल बाड़ु….
अरे तनी बहरियो निकलऽ …इ देख के आइल बा…तहर भैया ।
अरे ना ना हम ना निकलब रउरा सबे हमे रंग लगावे आइल बानी …
अरे नाही हो निकल के देखऽ त सही…
ना ना हम ना आइब…
भौजी को घर से बाहर निकालकर रंग लगाने का हमलोग न जाने कितने तरकीब निकालते थे…
घंटो घर के बाहर भीतर लुका छुपी…
हमनी त आज रंग लगइबे करब चाहे जब ले बहली निकलऽ…
और भौजी घर से बाहर आती भी थी…
और क्या बोलती थी
धीरे से रंगवा डाल ए देवरू
बहुते लागेला पाला हो…
और हम जैसे देवर क्या बोलते थे…
भौजी तोहर गालवा बा गोर-गोर हो…
रंग आजु लगाइब हमनी पोर-पोर हो…
फागुन महिना के शुरू होने के साथ ही चारों तरफ फगुनहट गीत डफली झाल मृदंग के सोर फगुनहट हवा के साथ
जब कानों मे पड़ता था बचपन खुद उस तरफ दौड़ जाता था।
गांव हो या शहर लोग सामाजिक तौर पर कितने बंधे थे…
एक दूसरे के बीच कितना अपनापन था।
अब वो हुड़दंग और अल्हड़पन कहां ।
अब हमलोग तो आधुनिक हो गए हैं ना ।
चलऽ भाई लोग जे भी होखे आपसी सौहार्द और अपनापन बनल रहे के चाही ।

रवि रंजन