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हिसाब होगा

सदन तुम्हारा, सभा तुम्हारी
ये जादुई आंकड़े तुम्हारे,
ये नफ़रतों को दिलों में,
पाले हुए सभी काफ़िले तुम्हारे,

तुम्हारी ही ये बिकी सहाफ़त,
ख़बर तुम्हारी, क़लम तुम्हारे,
ये ज़ुल्मत-ए-शब में आम जन को,
जो मिल रहे हैं, अलम तुम्हारे,

इन्हीं के बल पर खड़े हुए तुम,
जो झूठ को सच बता रहे हो,
इन्हीं के बल पर वहां हो पहुंचे,
जहां से हम को डरा रहे हो,

मगर न भूलो ऐ ज़ालिमों कि,
कभी तो आज़ाद आफ़ताब होगा,
कभी तो आएगी सुबह अपनी,
कभी तो सच अपना ख़्वाब होगा,

कि जब उठेंगे ये ग़म के मारे,
वही तुम्हारा जवाब‌ होगा,
उखड़ पड़ेगी ज़मीं तुम्हारी,
कभी तो वो इन्क़लाब होगा,

हिसाब होगा!

– तलहा मन्नान