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वक़्त

वक़्त एक बार फिर
वहीं आ कर थम सा गया
फर्क है मौसम का
तब सर्द हवा की सुवह थी
आज तापीश गर्म सा शाम
पर मै वही हूँ
और कुछ छन तुम्हारे साथ का
कमरा भी वही
अपनी सखी संग
हसी मजाक उड़ रहा था
मानों पंख सा लगा हो
उन खुशीयो को
लिखीं लकीरों से बाहर निकल कर
जैसे तुम्हारे शब्द मोतियों मे पिरोया था
बड़े अरमानों से लिखी गई थी
वो इंतजार
वो प्रेम मे लिप्त पंछियों का जोड़ा
ना जाने कब कहां लुपत हुए
जिक्र ही ना रहा
काश वो मंजर फिर से दोहराता
फिर से गतिमान होता
आता वो कहीं से
सर्द रात की
हवा….

– कामिनी कुमारी दास