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भूख की आत्महत्या

भूख सिमट कर
आंतों में आ गई,
और देख रहे हैं
सियासत का ढोंग खड़े,
वक्त आहिस्ता कुतरने लगा
जिन्दगी के जख्मों से
.बुनी मखमली चादर
जिस पर सोते रहे हैं,
कभी नँगा जिस्म रख
और कभी घुटनों तक ढंकी
जिंदा लाश
किसी गरीब की,
किसी बेबस किसी लाचार की

भूख सिमट कर
जब आंतों से लड़ने लगी
करने लगी सौ-सौ षडयंत्र,
और मात देने लगी
अपने तर्कों से, अपने बयानों से,
तो लगा
अब आजादी चाहिए
इस रूह को
अपने इस जिस्मानी संसार से,
जिसमें राख-राख
धुंआ-धुंआ, मिट्टी-मिट्टी, हवा-हवा,
थोड़ा नर्म एहसास
सब कुछ साफ, सब कुछ,
सब कुछ, कुछ नहीं
जब सिमटने लगी आंतों में,
लड़ने लगी।

– कार्तिक सागर समाधिया