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गिरहें

सुनो न…
आओ मिल कर ज़िन्दगी की गिरहें खोलें
तुम बस अपना सिरा थाम लो
मेरा तो मुझसे कभी छूटा ही नहीं
वो जो एक गांठ तब तुमने लगाई थी
या शायद धागा उलझ गया था
उससे पड़ी ऐंठन को
इस पानी में थोड़ा मुलायम कर लें
और कड़वाहटों को अंतिम विराम दे दें…
अपनी-अपनी ज़िद की गठरी भी
इस दरिया के हवाले कर दें
हमेशा-हमेशा के लिए…
तुम आओगे क्या… बताओ न…

– अमित सिंह