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क्यूँ ढूंढे

क्यूँ ढूंढे हम काम नया, क्यूँ नई जिंदगी ना ढूंढे,
क्यूँ सीखे तहज़ीब नई, अंदाज़ नया क्यूँ ना ढूंढे ।

कट जाए गर भरी दुपहरी,
आराम से, तो क्या बिगड़ेगा ।
कुछ सुस्ता लेंगे दो पल,
दो पल में क्या क्या बिगड़ेगा ।।

क्यूँ ढूँढे तपती धूप, क्यूँ छांव-आसरा ना ढूँढे,
क्यूँ ढूँढे हम काम नया, क्यूँ नई ज़िन्दगी ना ढूँढे ।

क्यूँ भागे हम उस रस्ते पर,
है जिसका कोई छोर नहीं।
क्यूँ जागे पूरी रात वो हम,
है जिसकी कोई भोर नहीं ।।

क्यूँ ढूँढे अनजान डगर, पहचान नई क्यूँ ना ढूँढे,,
क्यूँ ढूँढे हम काम नया, क्यूँ नई ज़िन्दगी ना ढूँढे ।

क्यूँ भटके घूमे इधर उधर,
जब एक छत है अपने घर की ।
जब माँ का आँचल हो सर,
क्यूँ चिंता हो अपने कल की ।।

क्यूँ ढूँढे झूठा अपनापन, क्यूँ अपनो की संगत ना ढूँढे,
क्यूँ ढूँढे हम काम नया , क्यूँ नई जिंदगी ना ढूँढे ।।

– सौरभ विन्चुरकर