You are currently viewing कालाघर

कालाघर

एक ऐसी जगह जहां काला रंग श्रेष्ठता का प्रतीक है,जहां काले रंग की महिलाओं के लिए पुरूष तरसते है। जहां मुझ अभागे को इसीलिए संगनी नहीं मिली क्योंकि इनके पैमाने पर मेरे बदन का रंग गेरुआ है, दूसरी नजर में मैं श्याम रंग का सावंला हूँ पर खूबसूरत  काला रंग का न होने के कारण मुझे मेरे गांव की लड़की देखती तक नहीं है, दरअसल मेरे गांव का नाम कालाघर है, जैसा कि नाम से ही समझ आता है, हमारे पूरे गांव में कोई गोरा नहीं है, एक मंझोले दादा यहां पैदा हुए आखरी गोरे रंगल के व्यक्ति थे पर इसी कारण वह आजीवन कुंवारे रहे, वह इतने बदसूरत थे, कि हम उन्हे देखकर उल्टी करने को मजबूर हो जाए, भद्दे से सफेद रंग का उनका बदन ढ़कने के लिए वह अक्सर काले रंग के कपड़े पहनते थे, उन्होने काले होने के लिए खूब मेहनत भी की वह तेज धूप में घंटों खड़े रहते थे, सरसों के तेल के दीपक को जलाकर उसके उपर खाली दीपक रखकर उसकी कालिख को सोते समय चेहरे पर घिसा  करते थे पर उनकी गोरे रंग की बदसूरती ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, नहर के पास छह कोड़ी के मंदिर के पीछे काले रंग की मेड़ इन कालाघर वाली टाइल्स की बाथरुम में फिसलकर उनकी मौत हो गई, अब उन मंझोले बाबा के बच्चे तो थे नहीं, फिर गांव के आराध्य शनिदेव का नाम लेकर उनके पूरे शरीर पर काली तिल, राई और कंकड़ चिपाकर उनका अंतिम संस्कार हुआ कि अगले जन्म में वह गोरे रंग के इस नासूर के साथ पैदा न हो।

वैसे में श्याम रंग का हूँ  पर,  इस वर्ण के कारण गांव की बिसीयों हुस्न परियों ने मेरे प्यार को ठुकराया है। यह भी अचंभा करने वाली बात है, कि मेरी मां का नाम कालीमाई है, जैसा नाम वैसे गुण अमावस्या की रात जितनी काली मेरी मां हमारी बुरिया जनजाति की प्रमुख है, उनको यौवन में शादी से पहले 517 कंघियां मिली थी, जिनमें से मेरे पिताजी की किस्मत खुली और मां ने उनकी कंघी चुनकर उन्हे पसंद  किया, दरअसल हमारे यहां शादी ऐसे ही होती है, हमारा गांव बुरिया जनजाति बाहुल्य गांव है, हमारी मान्यता है, कि कल्पी कलयुग में काला रंग ही शक्ति का केंद्र है, हमारी जनजाति में प्रेम इजहार में कंघी का खास रोल है दरअसल हमारे गांव में युवक अपने हाथों से कंघी बनाकर लड़कियों को गिफ्ट देते है और युवती  उसके आधार पर अपना पति चुनती है, यह ऐसी वैसी कंघी नहीं है, इस कंघी को बनाने में महीनों लगते है, जिसमें हम लकड़ी में भुटंग, रेखाएं और हमारी जाति चिंह काला भैसा उकेरते है, यह सब जब एक कंघी में ड़लता है, तब जाकर अपनी पसंदीदा लड़की को यह दी जाती है। मेरे गांव की महिलाएं बताती है कि मेरी मां को 517 कंघी मिली थी, माघ माह की अमावस्या की रात को जब मां सजधज कर निकली तो उनके बालों के जुड़े में 517 कंघियां ताज की तरह नजर आ रही थी, यकीन मानिए आज तक इतनी कंघी रिश्तों की शक्ल  में कभी किसी को नहीं मिली, फिर मेरी मां ने पिताजी वाली कंघी नानी को दी और उन्होने पिताजी के घर जाकर दादी से पिताजी का हाथ मांगा और उन दोनों  की शादी हो गई पर मैं अपनी मां और पिता की तरह सुंदर नहीं हूँ , मेरी मां कालीमाई और पिता सुझोले के एक भी गुण मुझ में नहीं है। काश मैं उनकी तरह काला होता, पर मुझ पर राजा इन्द्र  का प्रकोप लगा है जो उन मंझोले दादा को भी लगा था, हे हम कालाघर वासियों के संरक्षक शनिदेव मुझपर कृपा करो और कोई कमसिन कली काली स्त्री को मेरे जीवन में भेज दो, प्लीज भगवन।
शायद शनिदेव हम गैरकालों की मन्नत भी सुनते है, यही कारण है, कि एक दिन हमारे गांव में या यूँ  कहे मेरे हिस्से एक चमत्कार आया, दरअसल कालिंदी नदी के किनारे मैं अक्सर बड़ादेव जी का स्मरण कर डूबकी लगा रहा था, तभी मेरी  नजर एक लड़की पर पड़ी तब सूर्य पश्चिम में था और ढ़लते सूरज के साथ साथ उस सुंदरी की परछाई मेरे ऊपर  पड़ी थी, श्याह काला रंग मानों चाह विहीन रात सा उसकी श्याम रंग की आंखे, जिसके ऊपर से वह अपने सुनहरे लाल काले रंग मिश्रित वालों को हटा रही थी, उसके होठ के निचले हिस्से पर तिल था और वह महुआ की पत्तियों को हाथ में पकड़ी हुई थी, उसके हाथ में कोहनी के निचले हिस्से पर नीले रंग का आधा चांद बना हुआ था, उसके गले में लकड़ी की नक्काशी की हुई माला था, जिस पर सुपारी जैसे आकार की सूड़ बनी हुई थी वह सफेद रंग की साड़ी पहनी हुई थी, वह सफेद रंग जिसको हमारे समाज में पिछड़ेपन का ठप्पा मिला हुआ है, उसको ऐसे देख मेरा दिल उस पर आ गया पर  बीसो बार  इंकार झेल चुका मैं अभागा चरण, इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाया, कि उसके लिए लकड़ी की कंघी बनाकर अपने को इस तिरस्कार की अग्नि में जला सकूं, पर मैने उसके बारे में जानकारी जुटाना शुरु कर दिया, उसका नाम स्यामली था और वह पहली मर्तबा हमारे गांव कालाघर आई थी, यहां उसके मामा हमारे घर की पिछली किवाड़ के सामने ही रहते थे, वह 19 साल की कुमारी थी और मैं 18 साल का , हमारे यहां बड़ी बहु बड़ा भाग्य की तर्ज पर ही शादियां होती है। मैं रोजाना उसके मामा खेमकरण के घर के पास जाकर बैठकर हाथ तांपता था और उसकी आवाज सुनकर खुश हो जाता था, मुझे पता चला कि अभी दो माह पहले ही उसकी मां का देहांत हुआ है, उसकी मां भी मेरी तरह ही श्याम रंग की थी, इसीलिए लोग उन्हे बुलुऊओं में नहीं बुलाते थे, यही कारण है, वह हमारे गांव में नहीं आती थी,मुझे उससे प्यार ओर गहरा होता गया,, मैने उसके लिए कंघी बनाने की ठानी, काम शुरु भी हुआ पर भुजंग बनाकर वह मैने घर की धेरी से उछाल दी, मैं उसकी सुंदरता के बारे में सोचकर यह कर बैठा था, वह कंघी ढूंढने पर भी मुझे नहीं मिली, दिन बीते, माह बीते, देखते देखते दो वर्ष बीत गये, श्यामली अपने गांव जा चुकी थी, अब मैं बिना स्त्री के आजीवन रहने की अपनी स्थिति समझ गया था पर इस बार किस्मत मुझ पर मेहरबान थी, कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की दूजा को मेरी खटिया पर एक कंघी  रखी हुई थी जब मैने उसे उठाकर देखा तो मैं सकपका गया यह वह ही कंघी थी जो उस दिन गुमी थी, मैने वह कंघी को देखा और एकाएक मेरी अश्रुधारा निकल पड़ी तभी मैने देखा श्यामली मेरी मां कालीमाई के साथ   आ रही है और उसने बालों का जुड़ा बना रखा है, जिस पर बहुत सी कंघिया लगी है वह आई और उसने मुझसे वो कंघी मांगते हुए हाथ आगे किया, जब मैने कंघी दी तो तब वह कंघी उसने मेरी मां को दे दी देवउठनी ग्यारस को हमारी शादी हो गई,वह कंघी जब मैने फेकी थी तब वह श्यामली ने उठा ली थी और वह सारा मांजरा समझ गई, शायद शब्द से ज्यादा भावनाएं मायने रखती है और मेरे दबे होठो से उसने इजहार ए इश्क पढ़ लिया था, आज हमारी एक गोरी लड़की सरोज और एक काला लड़का रतन है, दोनो को मेरी पत्नी श्यामली के संस्कार मिले है, जो बदन के रंग को नहीं इंसानी जज्बातों को तरजीह देते है, रंग गोरा हो या काला कोई भी रंग खराब नही होता। उस कुदरत के हाथ लगी हर मिट्टी पवित्र है। हम एक खुशहाल जीवन कालाघर गांव में जी रहे है।  

-शुभम शर्मा