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अल्फ़ाज़

मैं जो भी लिखता हूँ ना
पता है
वो अल्फ़ाज़ अनाथ होते है
पर फिर भी सबसे वफादार होते है
क्योकि वो सब मैं तुम्हारे लिए लिखता हूँ
और जब उन लफ़्ज़ों को तुम्हारा नाम मिल जाता है ना
तब वो अनाथ नहीं रहते
एक पहचान मिल जाती है उन्हें
उनमे तुम्हारा ज़िक्र होने से
एक अलग ही जन्म होता है उनका तुम्हारे साये में
ये लिखावट भी तो तुम्ही ने दी है न मुझे
तो क्यों ना खर्च करूँ मैं इन्हें तुम पर
पर फिर भी कुछ कमी रह जाती है मेरे लिखने में

क्योंकि जिस वक़्त मैं लिखता हूँ
तुम पीछे से आकर मेरी बाँहों में अपना हाथ डालकर मुझे लिखने से रोक कर परेशान नहीं करती
कुछ लफ्ज़ तो धूल से जाते है जब ये सब याद करके रोना आ जाता है
और तुम साथ नहीं होती उन्हें समेटने के लिए
और मुझे गले लगाकर फिर से बिखर जाने देने के लिए

एक बात कहूँ…

तुम पास आ जाओ ना मेरे कुछ दिनों के लिए
मैं हम दोनों के लिए कुछ लिखना चाहता हूँ
और में भी चाहता हूँ की ये मेरे लिखे हुए कुछ लफ्ज़
तुम्हारे होंठो से होकर गुज़रे और मेरे कानो तक आये और मेरे ज़हन में उतर जाये
सुना है ज़हन में उतरी हुयी
यादें कभी नहीं निकलती
अब इन लफ़्ज़ों को भी तुमसे दूर रहना अच्छा नहीं लगता…

अखिलेश चंद्रवंशी