You are currently viewing अधूरी किताब

अधूरी किताब

बहुत सी किताबें पढ़ी हैं मैंने
कई सारी, बहुत सारी, सब अलग-अलग
पर मेरी पसंदीदा किताब तुम थी हमेशा
तो क्या हुआ,
जो तुम्हारे आखिरी और पहले पन्ने से
बस मुखातिब हुआ मैं
पर पन्ने सारे महसूस किये थे मैंने

पन्नों की खुशबू आज भी जेहन में है मेरे
उन पन्नों को पलटना आज भी याद है मुझे
उन पन्नों की आवाज आज भी सुनाई देती है
जब रात धीरे-धीरे जवां हो रही होती है
मन होता है, पन्नों को फिर पलटने का
और शायद होते हुए भी नहीं होता

बस ऐसे ही रात बूढ़ी हो जाती है,
और आंखें भी थक जाती हैं
थककर बंद हो जाती हैं
और सुबह फिर से तुम्हारी खुशबू उड़ जाती है
दिन भर के लिये जेहन से
दिन भर फिर से कई किताबें हाथ में आती हैं
कुछ पढ़ पाता हूँ, कुछ अधूरी हैं आज भी

शाम फिर बरबस उस वक्त को याद दिला ही देती है
जो वक्त हमारा होकर भी हमारा नहीं है
जो शायद तुमने हमारा होने ही नहीं दिया
वो तब भी सिर्फ मेरा था,
और आज भी सिर्फ मेरा ही है..

– गौरव जैन