You are currently viewing स्वर्णिम मिलन

स्वर्णिम मिलन

दूर गगन में हाथ फैला कर जब
अलसाई किरणें उठती है
लेकर अंगड़ाई
अंबर उतरकर धरा पर ओढा देता है
धानी चुनर गंगा को वहीं
तब लगता है स्वर्णिम दुनिया में हूँ
खोई मैं बैठी रहती हूँ मंत्रमुग्ध वहीं

जब खग फैलाकर बाँहें
मधुर गानों से आते हैं
स्वर्णिम मिलन का अभिनंदन करने
जब धीरे-धीरे गंगा बनती है
अंबर का दर्पण वहीं तब लगता है
स्वर्णिम दुनिया में हूँ
खोयी मैं बैठी रहती हूँ मंत्रमुग्ध वहीं

जब देखकर मिलन
कलियां हंस पड़ती हैं, शबनम द्वेष से
धीरे-धीरे जाती है दिखाई,
तब लगता है स्वर्णिम दुनिया में हूँ
खोयी मैं बैठी रहती हूँ मंत्रमुग्ध वहीं

जब फैलाकर बाहें रवि, धीरे-धीरे आगोश में लेता है धरा को
वहीं तब दमक उठता है चेहरा धरा का कहीं
तब मैं सोचती हूँ कल फिर देखने आऊंगी
इस स्वर्णिम मिलन को यहीं

– रोमा रागिनी