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अंदाज-ए-जिंदगी

मेरे आज को मेरे कल से
मत टटोलो
हाथों की लकीरों पर
हम कई पर्दे गिराए
बैठे हैं।
रोज़ बनते रोज़ बिगड़ते हैं
मिट्टी में मिलकर
भी नज़रों को कुंदन बनाए बैठे हैं।
भले या बुरे की परवाह न
तब कि न अब है
मुस्कुराते चेहरे के पीछे
कई ज़ख़्म छुपाए बैठे हैं।
इश्क़ फरमाने की उम्र है हमारी
हम कई तजुर्बों को आसार
बनाए बैठे हैं।
उनका वापस आना या
न आना ये उनकी मर्ज़ी है
हम ख़ुद को उनके दिल
का ताजमहल बनाए बैठे है।
यूं फिक्रमंद ना समझो हमें
हम ख़ुद ही बहुतों से खार-खाए
बैठे हैं।
लोगों को अक्सर गज़लों से दिल
लगाते देखा है हमने
हम तो सिर्फ एक मतले के दर पर
अपना सब कुछ गंवाए बैठे हैं।

-पिंकी कड़वे