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ज़िंदगी फ़ना हो गई

इस दरो-दीवार से वाबस्ता हर ख़ुशी ख़फा हो गई,
बस धड़कती साँसें ज़िंदा हैं, ज़िंदगी फ़ना हो गई l

हर रस्म से जुदा हमने बनाये थे चंद क़ायदे पोशीदा,
जाने कैसे ज़माने को हमसे पहले ख़बर हो गई l

बेवक्त ही उम्र के साथ हो गए हम भी होशमंद,
पर वक़्त के साथ बचपन की नादानी नहीं गई l

रोज़ गिरता हूँ, संभलता हूँ, फिर तन कर चलता हूँ,
हर क़दम पर ठोकरें खाने की रवानी नहीं गई l

ये कैसी है इक़बाल-ए-बुलंदी जहाँ छूट जाता है सब कुछ,
पर बहुत कुछ खोकर भी खुद के होने की गुमानी नहीं गई

आ अब लौट चलें उस ठौर जहाँ है तेरी मक़बूलियत,
पर उन जाने-पहचाने रास्तों की कड़ी कहीं खो गई।

इस दरो-दीवार से वाबस्ता हर ख़ुशी ख़फा हो गई,
बस धड़कती साँसें जिंदा हैं, ज़िन्दगी फ़ना हो गई l