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ग़ज़ल

ऐसी भी क्या उड़ी है ख़बर देख कर मुझे
सब फेरने लगे हैं नज़र देख कर मुझे

क्यों छट नहीं रहा है सियह रात का धुआँ
क्यों मुंह छुपा रही है सहर देख कर मुझे

दोनों ही रो पड़े हैं सर-ए-मौसम-ए-ख़िज़ाँ
मैं देख कर शजर को शजर देख कर मुझे

मानूस हो चुका है मेरी आहटों से घर
खुल जा रहे हैं आप ही दर देख कर मुझे

यूँ तो हज़ार रंज थे शिकवे गिले भी थे
कुछ भी न कह सका वो मगर देख कर मुझे

– आशु मिश्रा